उत्तराखंड की चित्रकला का इतिहास
उत्तराखंड की चित्रकला का इतिहास कई वर्षों पूर्व से शुरू होता है। उत्तराखंड की गुफाएं पहाड़ी चित्रकला शैली से भरी पड़ी हैं। उत्तराखंड की चित्रकला के साक्ष्य कई प्राचीन गुफाओं से प्राप्त हुए हैं, जहाँ प्राचीनतम शेल चित्र पाए गए हैं। जिनमें मानव को समूह में नृत्य करते हुए और विभिन्न पशुओं को दर्शाया गया है, जिन्हें रंगों से सजाया भी गया है।
उत्तराखंड के कुछ प्राचीनतम कला-स्थल —
अल्मोड़ा के लाखु गुफा के शैल चित्र में मानव को अकेले व समूह में नृत्य करते हुए दिखाया गया है। इसके अलावा विभिन्न पशुओं को भी चित्रित किया गया है, इन चित्रों को रंगों से भी सजाया गया है।
चमोली के ग्वारख्या की गुफा में अनेक पशुओं के चित्र मिलते है, जो लाखु के चित्रों से अधिक चटकदार है।
चमोली के किमनी गांव के शैलचित्र में हथियार एवं पशुओं के चित्र है, जिन्हें सफेद रंग से रंगा गया है।
अल्मोड़ा के ल्वेथाप के शैलचित्र में मानव को शिकार करते हुए व हाथों में हाथ डाल कर नृत्य करते हुए दिखाया गया है।
उत्तरकाशी के हुडली गुफा के शैलचित्र में नीले रंग का प्रयोग किया गया है।
मध्य एवं आधुनिक कला (Middle and Modern Art)
16वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक राज्य में चित्रकला की ‘गढ़वाली शैली’ प्रचलित थी। गढ़वाली शैली, पहाड़ी शैली का ही एक भाग है, जिसका विकास गढवाल नरेशों के संरक्षण में हुआ।
सन् 1658 में गढ़वाल नरेश पृथ्वीपति शाह के समय मुगल शहजादा सुलेमान शिकोह अपने दरबार के दो चित्रकार तुंवर श्यामदास और उनके पुत्र हरदास को गढ़वाल लेकर आया और इन्हें यहीं छोड़ दिया। हरदास के वंशज गढ़वाल-शैली के विकास में लगे रहे।
हरदास का पोता मौलाराम तोमर था। जो गढ़वाल-शैली का सबसे महान चित्रकार था, जिसे प्रदीपशाह, ललितशाह, जय कीर्तिशाह व प्रद्धुमनशाह का संरक्षण मिला। जीवन के अंत तक मोलाराम, श्रीनगर में अपने चित्रशाला में तल्लीन रहे।
मोलाराम के बाद गढ़वाल-शैली की अवनति होने लगी, उनके वंशज वालाराम, शिवराम, अजबराम, आत्माराम, तेजराम आदि गढ़वाल-शैली के अवनति-कालीन चित्रकार हुए।
मोलाराम के चित्रों को दुनिया के सामने सर्वप्रथम बैरिस्टर मुकुंदी लाल ने रखा।